पेश आ कल की तरह आज भी।
खोल दे दिल की गिरह आज भी।।
बस कुछ ऐसे ही ये दिन गया।
फिर रोज़ कि तरह आज भी।।
बस तेरे दीदार की ही तमन्ना रही।
क्यूं, पता नहीं ये वजह आज भी।।
कुछ ख्वाइशों,ख्वाबों की आरज़ू में।
करती रही ये ज़ीस्त जिरह आज भी।।
बस तेरा ही ख़्याल सताता है मुझको।
फिर आई तेरी याद सुबह आज भी।।
करते हैं यूं तो समझौता रोज ही।
फिर ज़िंदगी से की सुलह आज भी।।
सर उसी के दर पे झुकता है 'चंद्रेश'।
याद उसकी आती है बेतरह आज भी।।
लेखिका चंद्रकांता सिवाल "चंद्रेश"
करोल बाग (दिल्ली)