साहित्य के हिमालय से प्रवाहित दुग्ध धवल नदी-सी हैं, डॉ प्रभा पंत।

डाटला एक्सप्रेस संवाददाता 

साहित्य के हिमालय से प्रवाहित दुग्ध धवल नदी-सी हैं,डॉ प्रभा पंत। एक ऐसी नदी जो जोश-ओ-होश से लबरेज, अपनी राह ख़ुद बनाती हुई, अपने समीप आने वालों की आत्मा को अपनी लेखनी से तृप्त करती आ रही है, वर्षों से। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हल्द्वानी में हिंदी विभाग की अध्यक्ष, प्रो.प्रभा पंत जी ने अनेक ऐसे गुमनाम साहित्यकारों पर शोध कराया है, जिन्हें या तो लोग जानते ही नहीं थे, या भूल चुके थे। वह अपने निर्देशन में पीएच.डी. करवा कर, भूत को वर्तमान की कड़ी से जोडने का ऐसा अद्भुत अविस्मरणीय कार्य कर रही हैं, जो भविष्य में भी साहित्य के आकाश में ध्रुव तारे की तरह सदा चमकता-दमकता रहेगा। 

प्रोफ़ेसर पंत को लोकभाषा साहित्य और संस्कृति की संवाहिका कहें, तो अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि ये विगत लगभग 38 वर्षों से निरंतर ख़ामोशी से अपनी मातृभाषा कुमाउँनी, जिसे वे अपनी माँ मानती हैं, की सेवा में लगी हुई हैं। इन्होंने वर्षों गाँव-गाँव घूमकर, बुजुर्गों से सुनकर, विलुप्त होते कुमाउँनी लोकसाहित्य, विशेषत: लोककथाओं को संकलित किया। कुमाऊँ की लोककथाओं और लोकगाथाओं पर पी-एच.डी. उपाधि भी प्राप्त की; इतना ही नहीं, कुमाउँनी लोककथाओं का हिन्दी में अनुवाद किया; पुस्तकें प्रकाशित कराईं; कुमाउँनी साहित्य- लोकसाहित्य एवं लोकसंस्कृति पर साहित्य रचा,और देश-विदेश तक पहुँचाया; इसके अलावा निरंतर लोकभाषा-साहित्य पर अनेक शोध भी कराए हैं, ताकि भावी पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहे।

साहित्य सर्जना को साधना मानने वाली प्रो.प्रभा पंत सूर्योदय से पहले जागती हैं, और फिर बिना थके जुट जाती हैं, साहित्यसेवा तथा अपने नियमित कार्यों में। 

अपने कविता संग्रह "तेरा तुझको अर्पण" में ये ईश्वर, जीवन दर्शन तथा सामाजिक यथार्थ से पूर्ण रूप से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। इनकी कहानियों में इतनी जीवंतता है कि इन्हें पढ़ते हुए लगता है, जैसे सब किरदार किताब से निकलकर बाहर आ गए हों। हम उनमें और वो हममें इस तरह रच-बस जाते हैं कि चाहकर भी उनसे अलग नहीं हो पाते। 

प्रो.प्रभा पंत जी को मैंने प्रयागराज में समन्वय संस्था (जिसे स्वयं आदरणीय महादेवी वर्मा जी ने स्थापित किया था) द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में देखा था । ये मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं इनके बगल वाली कुर्सी पर बैठी थी। ये धीर-गम्भीर भाव से प्रोग्राम को देख व सुन रही थी । फिर इनका नाम पुकारा गया, ये स्टेज पर पहुँचीं और इन्होंने अपनी प्रस्तुति दी। अपनी मधुर वाणी में इन्होंने विषय को गागर में सागर की तरह समेटकर, सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया । काव्यपंक्तियाँ पढ़ते हुए प्रभा जी ने "किंतु" शब्द का ऐसा आलाप लिया कि मैं उस आलाप में या शब्द की गूंज में इस तरह खो गयी कि अब तक ख़ुद को खोज रही हूँ । यह हमारी पहली मुलाकात थी। 

मेरे लिए ये बहुत ही आश्चर्य की बात है कि ये एक आदर्श माँ, पत्नी, शिक्षाविद्, साहित्यकार, और काउंसलर भी हैं। घर के सारे काम करते हुए भी ये कुछ- न-कुछ मन में रचती रहती हैं, और तुरन्त लेपटॉप में मन में आया विचार उतारकर फिर काम मे पूरी शिद्दत से लग जाती है । इन्होंने कुमाऊँ पर बसे हुए छोटे-छोटे गाँवों में, सीढ़ीदार खेतों से गुजरते हुए, घर -घर भ्रमण कर वहाँ के स्थानीय लोगों से जुड़कर कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को एक माला में पिरोया, जिसे पुस्तक का रूप दिया। पहाड़ के गाँवों में दूर-दूर बसे घरों में ये पैदल चलकर जाया करतीं और उनकी परेशानी और खुशियों की साझेदार बनती। ये घटनाक्रम अनवरत जारी है इनका। 

इन्हें लगता है अभी बहुत कुछ है कुमाऊँ की प्रकृति में, वहाँ बसे लोगों में जो लिखना शेष है अभी। इतना लिखने पर भी ये कहती हैं कि "अभी लिखा ही कहाँ है , अभी तो केवल शुरुआत हुई है।" मैं इनके मुख से जब ये सुनती हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी और लोकप्रिय लेखिका होकर भी इनमें अहम व वहम का नामोनिशान तक नहीं है। सच में ये माँ शारदे की दुलारी हैं। 

इनकी एक खासियत और है, ये जो भी करती है उसमें पूरी तरह रम जाती है। घर में है तो पूरी तरह घर में, कॉलेज में बच्चों के साथ है तो पूरी तरह बच्चों में और रम जाती है। इनपर जितना भी लिखा जाए कम है। मुझे तो ये अनवरत बहती नदी सी महसूस होती है, जो हिंदी और कुमाउँनी साहित्य-लोकसाहित्य और परिष्कृत और परिमार्जित करती जा रही हैं, जैसे गंगा नदी पत्थरों को तराशकर सालिगराम बनाती जाती है । इनकी एक खासियत और है जो हम जैसों में नहीं है । ये अपना एक मिनिट भी जाया नहीं करतीं। हर बात, हर काम की कोई न कोई ठोस वजह जरूर होती है इनकी, और हम तो है मस्तमौला फकीरी अंदाज में जीने वाले। अभी प्रो.प्रभा पंत जी पर इतना ही। आगे फिर लिखेंगे इन पर। चलो अब इनकी कविताओं, कहानियों और आलेखों में उतरकर कुमाऊँ के लोक जीवन को जी ले, कुछ पल ही सही।



लेखिका: ममता शर्मा "अंचल", अलवर (राजस्थान)मो.7220004040

Comments
Popular posts
दादर (अलवर) की बच्ची किरण कौर की पेंटिंग जापान की सबसे उत्कृष्ट पत्रिका "हिंदी की गूंज" का कवर पृष्ठ बनी।
Image
जर्जर बिजली का खंभा दे रहा हादसे को न्यौता, यदि हुआ कोई हादसा तो होगा भारी जान माल का नुकसान।
Image
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की छत्रछाया में अवैध फैक्ट्रियों के गढ़ गगन विहार कॉलोनी में हरेराम नामक व्यक्ति द्वारा पीतल ढलाई की अवैध फैक्ट्री का संचालन धड़ल्ले से।
Image
प्रदेश के दूसरे सबसे स्वचछ शहर का तमगा प्राप्त गाज़ियाबाद झेल रहा नगर निगम के अधिकारियों की लापरवाही की मार।
Image