कभी जो कह ना पाऊं मैं, तो समझ लेना तुम।
कभी जो बहक जाऊं मैं, तो संभल लेना तुम।।
वक़्त भर भी दे ज़ख्मों से, झोली कभी जो मेरी
जो आकर बैठूं पास तेरे, मरहम हो जाना तुम।।
बेबसी में छूट भी जाए, साथ कभी जो तेरा।
दूँ जो कभी आवाज़, हमदम हो जाना तुम।।
ये लाज़िम है कि छोड़ दें, पत्ते भी साथ दरख्तों का।
गर छोड़ दे साख परिंदे भी, उपवन हो जाना तुम।।
थिरक उठतें हैं लब मेरे, नग़मा ए वफ़ा के नाम से।
सिल जायें कभी जो होंठ मेरे, सरगम हो जाना तुम।।
वाज़िब है के बरसे सावन, दरिया की प्यास बुझाने को
जब प्यास बुझे ना सावन से, शबनम हो जाना तुम।।
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सुनील पंवार रावतसर (राज.)
स्वतंत्र युवा लेखक