राज के राज़ (क्रमांक 01 से 60) 


इक  ख़त्म  हुई  दूसरी  आ  जाती है बला-
ये ज़िन्दगी है, या है हादसों का सिलसिला. (1)
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हसीनाओं  के  क़दमों  में  मेरी  हस्ती  नहीं गिरती-
मैं परवाना हूँ वो, जिसको शमां ख़ुद ढूँढ़ती फिरती. (2)
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तू जब तक थी मैं ख़ुद को तिफ़्ल से ज़्यादा नहीं पाया-
तेरे  जाते  ही  माँ  मुझ  में   ज़ईफ़ी आ   गयी पल में.(3)
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ये वो जहां है जिसने फरिश्तों को नहीं बख़्शा-
हमदर्दी  की  हम  इससे  उम्मीद  नहीं  रखते. (4)
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वफ़ाओं की तेरी बदली सनम कुछ पल बरसती है-
मगर  अफ़सोस  मेरी  छत महीनों तक टपकती है. (5)
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तुम्हारे प्यार का क़र्ज़ा सनम मुझपे बक़ाया है-
तग़ादा ना किया तुमने, न मैंने ख़ुद चुकाया है. (6)
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बिना  पूछे  ही  जो  मेरा  पता  ख़ुद ढूँढ़ लेते थे-
बताने पे भी अब उनको हमारा घर नहीं मिलता. (7)
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जिन  पे  लुटा दीं हमने, सारी अशर्फ़ियाँ-
वो ही पलट के हमको फ़क़ीर कह रहे हैं. (8)
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मुझे  डरपोक  कहते  हो तेरा कहना बेमानी है-
जिसे डर कह रहे हो तुम, वो मेरी सावधानी है. (9)
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बहुत आज़ाद हूँ फ़िर क़ैद कर लो ज़ुल्फ़वालों तुम-
इसी में क़ैद होने से.............मेरी सच्ची रिहाई है. (10)
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तेरी  यादों  को  हमने ज़िन्दगी ग़ज़लों में ढारी है-
यही सेविंग, यही रिकरिंग, यही एफडी हमारी है. (11)
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क़ीमत लगी तो बिक नहीं सका मैं ऐंठ में-
अब  ये  मलाल  है  कि  कोई पूछता नहीं. (12)
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मयख़ाना चलता-फिरता देखा पहली बार है
हरेक  अंग  में  उनके  नशे  का कारोबार है (13)
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ग़ज़ल थी पुरअसर मेरी, मगर ये नाज़ ना पाई-
कभी  ये  साज़ ना पाई, कभी आवाज़ ना पाई. (14)
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ना  जाने  आज कैसी मोहब्बत का दौर है-
बाहों में कोई और, तसव्वुर में कोई और है. (15)
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रिश्वत  के  लेन - देन  में  आयी  बहार  है-
पहले जो इक ग़ुनाह था, अब कारोबार है. (16)
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कई  दे  देते  हैं  ठोकर जिगर को इस कदर जमकर-
अगर वो मर भी जायें,तो भी नफ़रत कम नहीं होती. (17)
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हज़ारों   तीर  तुमने   भी   चलाये  हैं  ज़माने पर-
एकाधा तुमको मिल जायें तो इसमें क्या बुराई है. (18)
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मैं  पत्थर हूँ कि हीरा, जौहरी बतायेगा-
मुझे पंसारियों की परख पे यक़ीन नहीं. (19)
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उम्मीदों  की  मेरे  डोरी  कभी  हरगिज़  न टूटेगी-
मैं मक़सद पे ही क़ायम हूँ,तो मंजिल कैसे छूटेगी. (20)
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पहले  क़दम को मेरे कमज़ोर मत समझना-
तूफान की शुरुआत भी झोंके से ही होती है. (21)
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एक अदना सा पतंगा,आग से लेता है पंगा-
'राज' तुम आदमी हो करके इतना डरते हो. (22)
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मुझे  बंजर - पहाड़ों  से न कुछ लेना है देना है-
मैं स्वाति बूंद हूँ,जिसको तलाश सीपियों की है. (23)
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जो मिल बैठे हैं तो हंस लें,जिगर को दर्द क्या देना-
अकेले  हम  भी  रोते  हैं, अकेले  तुम  भी रो लेना. (24)
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मेरे गज़लों की स्याही स्याह ज़िदगी से आती है-
मुझे  लिखने  की  रौशनाई,  रोशनी  नहीं  देती. (25)
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अगर बुझने से बचना है तो जलना तेज कर दो तुम-
हवा चिराग़ बुझा सकती है............... मशाल नहीं. (26)
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मेरी  ग़ज़लें  ज़माने  को  सनसनीखेज़ लगती हैं-
मगर मुझको शिकस्तों का ये दस्तावेज़ लगती हैं. (27)
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गिर-गिर के बार-बार मैं ख़ुद को संभालता हूँ-
भूखा  भी  रह के अपने सपनों को पालता हूँ. (28)
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दुश्मन  पे आज वार मेरा खाली पड़ रहा है-
हल्के में लेना उसको, मुझे भारी पड़ रहा है. (29)
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फ़रमान-ए-मौत पर मेरे, हैं दस्तख़त उन्हीं के-
जिनकी हरेक साँस............मेरी क़र्ज़दार है. (30)
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ग़ज़ल  टूटे हुए अरमानों का दरिया है
दर्द को बेचने का ख़ूबसूरत ज़रिया है (31)


मेरी ग़ज़लें मेरे हर दर्द की अब चाबी हैं
मेरी  नाक़ाम  ज़िन्दगी की कामयाबी हैं (32)


ख़ुदा! मेरा सनम ना जाने कितना सीनाज़ोर है
मोहब्बत  देने में कंजूस, तो लेने में सूदख़ोर है (33)


ये कल की इमारत का मलबा है मेरा 
इसी   से   नई   कल  इमारत  बनेगी (34)


ज़ुल्मों को जड़ से काट दे ये इतनी तेज़ है
अदना 'क़लम' न समझो इसे, एक नेज़ है (35)


न आँको  'राज' को कमतर  कि बूढ़े  हो रहे हैं वो
तपिस जाते हुए सूरज में भी कुछ कम नहीं होती (36)


कई  गुज़रे, कई आयेंगे वक़्त बहता आब है
कोई भी ये नहीं सोचे कि वो ही लाजवाब है (37)


इबादत मैं ख़ुदा की करता हूँ, करता भी रहूँगा
फ़ायदा  ये  है  कि  इसमें मेरा नुक़सान नहीं है (38)


अगर  तक़दीर  की  तासीर ख़ुद से तुम अलग कर दो
तो फिर इस 'राज' से किस मायने में तुम मुक़ाबिल हो (39)


राहों में हैं तो मंज़िल भी दूर नहीं है
सपनों में कटौती मुझे मंज़ूर नहीं है (40)


हो  करके ज़ज़ीरा भी, जी रहा हूँ प्यास में
ग़ुम हो गया हूँ आजकल अपनी तलाश में (41)


हसीना  सामने  से  ना जँचे उन्नत  उरोजों बिन
बुरी पीछे से लगती है,जो उभरी बम नहीं होती (42)


ना  जाने  आज  कैसी मोहब्बत का दौर है
पहलू में कोई और तसव्वुर में कोई और है (43)


इन्हें अब बेदख़ल कैसे करूं, अपनी किताबों से
मेरे दर्दों ने मेरे गीतों में............पनाह ले ली है (44)


महल जिनके हों ऊँचे वो डरें, घुट-घुट के वो जीयें
मैं बे-घर ज़लज़लों से, बर्क़ से, क्यूँ ख़ौफ़ खाऊँगा (45)
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मेरे  एक  रुकने  से  क्या  होने  वाला? 
है  दुनिया  सफ़र  में, कहाँ  ये  थमी है
इसे क्या कहूँ, क्या कहूँ ख़ुद को मित्रों! 
ज़माना   है  बेहतर, या मुझमें कमी है (46)
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मेरा वक़्त था मैंने जमकर के पीया
तेरा  वक़्त  है  तू  भी पी ले शराबी
बेघर  हूँ, बेदर  हूँ   मैं  आज   जैसे
यक़ीनी  है  तेरी  भी  ख़ानाख़राबी (47)
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मौत-ओ-तक़दीर से डरकर न ख़ौफ़ में जीओ
मेहनती  हो  तो फिर, तक़दीर क्या बिगाड़ेगी
आये  हो  इस  जहां  में, तो यक़ीनन जाना है
ज़िन्दगी  बाक़ी  है  तो, मौत  क्या  उखाड़ेगी (48)
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तुम्हीं जब नहीं हो मेरी........अंजुमन में
तो किस काम का ये मोहब्बत का नग़मा
मुझे कितने मनहूस...........ये लग रहे हैं
बहारों की महफ़िल...सितारों का मजमा (49)
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अपनी  नाक़ाम  ज़िन्दगी  पे  क्या सफ़ाई दूँ
रिस्क के रस की मैंने भी तो चुस्कियां ली थीं
वो  तो  तक़दीर थी जो मोड़ गयी मुँह मुझसे
बाख़ुदा  कोशिशें  हमने भी कम नहीं की थीं (50)
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अभी दुश्मनी कुछ निभानी है बाक़ी
तो फिर दोस्ती तुमसे क्यूँ तोड़ दूँ मैं,
तड़पते  हुए  देखना  भी  है  तुमको
तो मुँह कैसे तुमसे भला मोड़ लूँ मैं (51)
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ख़ुदा ने मुझको चुना है तेरे सुकूं के लिए
ये  मेरा  काम  है न कोई बेजा हरकत है
मेरे  मरीज़  माफ़  करना  मैं  तबीब तेरा
तेरी  बीमारियों  में  ही  हमारी बरकत है (52)
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कोई मुफ़लिसी चाहे जैसी भी आई
शहंशा' रहे...........हम पियादे नहीं
बहुत दर-ब-दर हो के....जीने पे भी
इलाके तो बदले...........इरादे नहीं (53)
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शिकस्त से ही हमने फ़तह का नुस्ख़ा पाया
ग़रीब  हो  के  ही  हमने  अमीरी  पायी है
ख़ज़ाने में मेरे ग़ज़लें हैं, नज़्में हैं, रुबाई है
मेरी  बेरोज़गारी  की यही सच्ची कमाई है (54)
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कभी  भरती  है  ये  आहें, कभी ये गुनगुनाती है
शिकस्तों  पर  कभी  है कोसती, ताने सुनाती है
कभी जीने से जी बौरा के जो मरने को बोले तो
हज़ारों  जान  से  मेरी  ग़ज़ल  सीने  लगाती  है (55)
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कई किरदार मुझमें करवटें.......लेते ही रहते हैं
कभी मैं शाह होता हूँ, कभी शासित भी होता हूँ
उरूज़ों औ' ज़वालों का यहाँ है सिलसिला जारी
कभी वरदान  देता हूँ, कभी शापित भी होता हूँ (56)
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ज़ुल्फ़ों का उनके जबसे वो असीर हो गया
कहते  हैं 'राज' तब से ज़ौक - मीर हो गया
हर  बात  में अब उसके शायरी है टपकती
पहले   का  छिछोरा  बड़ा  गंभीर हो गया (57)
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बड़े  ही  जुनूं  से  चला  कारवां  था
मगर आज मंज़िल कहीं, मैं कहीं हूँ
पलट करके जब देखता हूँ सफ़र तो
जहाँ  से  चला  था, वहाँ भी नहीं हूँ (58)
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बताना है कुछ तो हक़ीक़त बयां कर
ये    झूठी   दलीलें  कहाँ  मानती  है
दुनिया  से  तू  क्या  छुपाता  है नादां
ये  तुमसे भी ज़्यादा, तुम्हें जानती है (59)
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फ़क़ीरों में शामिल हूँ, पर फ़ख़्र ये है
मेरे  गीत - ग़ज़लों की आवाज़ गूँजी
नहीं  पास  है  कुछ  सिवा इनके मेरे
यही मेरी पूजा.........यही मेरी पूँजी (60)
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राज राजेश्वर
MO- 880020113--8800703800
 -व्हाट्सप: 9540276160 
('मुसाफ़िर' -  ग़ज़ल संग्रह से)
e_mail- rajeshwar.azm@gmail.com


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