बेटा सफ़र में है


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डाटला एक्सप्रेस 


ट्रेन के खचाखच भरे डब्बे में धँसा था वो, उम्र कोई १६-१७ साल, साथ में पुराना झोला, कुछ किताबें होंगी शायद, एक बोतल पानी जिसे किसी तरह पीछे के स्टेशन से भर लाया था वो, दिल्ली जाना है उसे,सपनों की नगरी, तभी इसकॉन वाले "गीता” ले आते हैं,उसकी आँखों में चमक आ गयी है। १०-१० के नोटों से कुल ८० (अस्सी) रूपए में गीता ख़रीद चुका है, किसी ने पूछा ...'गीता' इस उम्र में......



जबाब आता है...."माँ” ने कहा था गीता पढ़ लोगे तो जीवन में कभी भटकोगे नहीं, इतना अटूट विश्वास ? दुनिया में जहाँ आज निस्पृह हो चुके काफ़ी लोग सिर्फ़ झूठी क़समें खाने को गीता छूते हैं वहाँ इतना विश्वास ? हाँ, सर माँ ने कहा है "दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान इसमें है" और फिर माँ ने कहा बस बात ख़त्म, लड़का मुस्कुराता है। सोचने लगता हूँ "माँ” सिर्फ़ सम्बोधन नहीं है, एक कभी विचलित ना हो सकने वाला भरोसा है, बिल्कुल अंधेरे में एकमात्र लौ सरीखा, हर मर्ज़ की आख़री दवा, जब हम सबसे ज़्यादा असहाय होते हैं तभी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है 'माँ' की, लेकिन पैरों पे खड़े होते ही हम 'माँ' से ही दूर होने लगते हैं, दोस्त,प्रेमिका,पत्नी,नौकरी,बच्चे प्राथमिकताओं में शामिल होने लगते हैं और 'माँ' जाने-अनजाने ही सही हाशिए में चली जाती है और बच्चे समझ नहीं पाते, समझती है तो सिर्फ़ 'माँ' जो नींव के ईंट की माफ़िक़ ज़मीन से १० फ़ुट नीचे दब जाती है, और जिसके ऊपर एश्वर्य और सांसारिक अन्य संबंधों की बुलंद इमारतें खड़ी हो जाती हैं। तकलीफ़ माँ को इस दूरी की होती ही होगी लेकिन अपने बच्चे को शिखर पे देख वो ख़ुश हो जाती है।


बचपन में माँ की कहानियाँ थीं, उन कहानियों में होती थी जादूगरनी जो भोले भाले बच्चों को टाफी, मिठाई और बगिया दिखा कर दूर ले जाती, बच्चे अपनी मिठाइयों में से थोड़ा-थोड़ा तोड़ कर फेंकते जाते कि रास्ता ना भूलें, फिर एक दिन वो रास्ता दिखाने वाली मिठाइयाँ कोई खा जाता है और जादूगरनी हमेशा के लिए बच्चे को रख लेती है। जादूगरनी जो था महानगर, मिठाइयाँ थीं नौकरी, सम्पत्ति और फेंकी मिठाइयों के सहारे जाते घर, मतलब त्यौहारों में जाते अप्रवासी। कितनी समझदार होती है माँ, तो क्यूँ जादूगरनी के पास जाने से ना रोकती ? शायद उसे लगता है बच्चा वहीं ख़ुश है .....


आधुनिक समय में 'माँ' भी थोड़ी-थोड़ी बदल रही है, फ़िल्मों में अब ना "मदर इंडिया” की तरह गोली चलाती है कपूत बेटे पर, ना ही "दीवार” की “मेरे पास माँ है” वाला 'गर्व' का विषय है, "माँ” के पास आँचल भी नहीं है।"माँ” भी आधुनिक हो रही है, फ़िल्मों में, साहित्य में हर जगह लेकिन वास्तविक प्रेम-विश्वास अभी भी वही है। बच्चे चाहे घर रहें, महानगरों में या सात समुद्र पार ......उन्हें भरोसा है "माँ” पर जो कहीं भी होगी उनकी सलामती की दुआएँ ही कर रही होगी। 



करियर (जीवनचर्या), मंज़िल, उड़ान, जादूगरनी, महानगरी का मायाजाल, बाज़ारवाद सब इस माँ-बेटे सम्बंध की चूलें हिलाने पर आमादा हैं। बेटे ने उड़ान भरी तो कभी भूल भी गया उसको जिसने वो पंख दिए, लेकिन पंख देने वाली उसे कभी नहीं भूली, वस्तुतः दुनिया में कोई ऐसी शक्ति बनी ही नहीं जो 'माँ' का प्रेम बेटे के लिए क्षण भर को भी हिला दे। फिर आइए वर्तमान में सोच के देखिए लड़का, ट्रेन, गीता, माँ, उसकी सीख, उसका फ़िकर करना सहसा पंक्तियाँ याद आ रहीं .....


“वो तो लिखा के लायी क़िस्मत में जागना 
फिर कैसे सो सकेगी कि बेटा सफ़र में है"



अभिव्यक्ति: डॉक्टर जगदानंद झा


 


डाटला एक्सप्रेस
संपादक:राजेश्वर राय "दयानिधि"
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