राज के राज़



डाटला एक्सप्रेस 


इक  ख़त्म  हुई  दूसरी  आ  जाती है बला-
ये ज़िन्दगी है, या है हादसों का सिलसिला. (1)
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हसीनाओं  के  क़दमों  में  मेरी  हस्ती  नहीं गिरती-
मैं परवाना हूँ वो, जिसको शमां ख़ुद ढूँढ़ती फिरती. (2)
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तू जब तक थी मैं ख़ुद को तिफ़्ल से ज़्यादा नहीं पाया-
तेरे  जाते  ही  माँ  मुझ  में   ज़ईफ़ी आ   गयी पल में.(3)
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ये वो जहां है जिसने फरिश्तों को नहीं बख़्शा-
हमदर्दी  की  हम  इससे  उम्मीद  नहीं  रखते. (4)
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वफ़ाओं की तेरी बदली सनम कुछ पल बरसती है-
मगर  अफ़सोस  मेरी  छत महीनों तक टपकती है. (5)
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तुम्हारे प्यार का क़र्ज़ा सनम मुझपे बक़ाया है-
तग़ादा ना किया तुमने, न मैंने ख़ुद चुकाया है. (6)
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बिना  पूछे  ही  जो  मेरा  पता  ख़ुद ढूँढ़ लेते थे-
बताने पे भी अब उनको हमारा घर नहीं मिलता. (7)
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जिन  पे  लुटा दीं हमने, सारी अशर्फ़ियाँ-
वो ही पलट के हमको फ़क़ीर कह रहे हैं. (8)
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मुझे  डरपोक  कहते  हो तेरा कहना बेमानी है-
जिसे डर कह रहे हो तुम, वो मेरी सावधानी है. (9)
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बहुत आज़ाद हूँ फ़िर क़ैद कर लो ज़ुल्फ़वालों तुम-
इसी में क़ैद होने से.............मेरी सच्ची रिहाई है. (10)
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तेरी  यादों  को  हमने ज़िन्दगी ग़ज़लों में ढारी है-
यही सेविंग, यही रिकरिंग, यही एफडी हमारी है. (11)
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क़ीमत लगी तो बिक नहीं सका मैं ऐंठ में-
अब  ये  मलाल  है  कि  कोई पूछता नहीं. (12)
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मयख़ाना चलता-फिरता देखा पहली बार है
हरेक  अंग  में  उनके  नशे  का कारोबार है (13)
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ग़ज़ल थी पुरअसर मेरी, मगर ये नाज़ ना पाई-
कभी  ये  साज़ ना पाई, कभी आवाज़ ना पाई. (14)
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ना  जाने  आज कैसी मोहब्बत का दौर है-
बाहों में कोई और, तसव्वुर में कोई और है. (15)
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रिश्वत  के  लेन - देन  में  आयी  बहार  है-
पहले जो इक ग़ुनाह था, अब कारोबार है. (16)
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कई  दे  देते  हैं  ठोकर जिगर को इस कदर जमकर-
अगर वो मर भी जायें,तो भी नफ़रत कम नहीं होती. (17)
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हज़ारों   तीर  तुमने   भी   चलाये  हैं  ज़माने पर-
एकाधा तुमको मिल जायें तो इसमें क्या बुराई है. (18)
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मैं  पत्थर हूँ कि हीरा, जौहरी बतायेगा-
मुझे पंसारियों की परख पे यक़ीन नहीं. (19)
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उम्मीदों  की  मेरे  डोरी  कभी  हरगिज़  न टूटेगी-
मैं मक़सद पे ही क़ायम हूँ,तो मंजिल कैसे छूटेगी. (20)
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पहले  क़दम को मेरे कमज़ोर मत समझना-
तूफान की शुरुआत भी झोंके से ही होती है. (21)
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एक अदना सा पतंगा,आग से लेता है पंगा-
'राज' तुम आदमी हो करके इतना डरते हो. (22)
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मुझे  बंजर - पहाड़ों  से न कुछ लेना है देना है-
मैं स्वाति बूंद हूँ,जिसको तलाश सीपियों की है. (23)
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जो मिल बैठे हैं तो हंस लें,जिगर को दर्द क्या देना-
अकेले  हम  भी  रोते  हैं, अकेले  तुम  भी रो लेना. (24)
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मेरे गज़लों की स्याही स्याह ज़िदगी से आती है-
मुझे  लिखने  की  रौशनाई,  रोशनी  नहीं  देती. (25)
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अगर बुझने से बचना है तो जलना तेज कर दो तुम-
हवा चिराग़ बुझा सकती है............... मशाल नहीं. (26)
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मेरी  ग़ज़लें  ज़माने  को  सनसनीखेज़ लगती हैं-
मगर मुझको शिकस्तों का ये दस्तावेज़ लगती हैं. (27)
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गिर-गिर के बार-बार मैं ख़ुद को संभालता हूँ-
भूखा  भी  रह के अपने सपनों को पालता हूँ. (28)
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दुश्मन  पे आज वार मेरा खाली पड़ रहा है-
हल्के में लेना उसको, मुझे भारी पड़ रहा है. (29)
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फ़रमान-ए-मौत पर मेरे, हैं दस्तख़त उन्हीं के-
जिनकी हरेक साँस............मेरी क़र्ज़दार है. (30)
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राज राजेश्वर 
8800201131-8800703800 
व्हाट्सप- 9540276160 
rajeshwar.azm@gmail.com


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