मेरी गुरू महादेवी वर्मा जी की यादें: डॉ० यास्मीन सुल्ताना नक़वी


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डाटला एक्सप्रेस 


किसी भी देश की संस्कृति अपने आकार-प्रकार के रूप में किसी अन्य देश की संस्कृति से बहुत ही अलग दिखाई देती है। यह अलगाव वहाँ के देश, काल, वातावरण तथा अन्य महत्वपूर्ण विषयों के धरातल पर टिका होता है। संस्कृति में भी बड़ा प्रवाह रहता है। जैसे एक नदी बहती है उसी प्रकार संस्कृति में भी बहाव रहता है। भारतीय तहज़ीब कई हज़ार सालों पुरानी है। जो विश्व के कोने-कोने में आदिकाल से जानी और पहचानी जाती है। भारत से बाहर जाने पर बौद्ध संस्कृति ने अपने आईने में भारत को और साफ़ दिखाया है जिससे दूसरे देश की संस्कृतियाँ प्रभावित हुए बिना नहीं रहीं।


हमारी संस्कृति फूलों का गुलदस्ता है जिसमें बहुत तरह की ख़ुश्बू समाहित रहती है। ऐसी ही संस्कृति की बयार जब बह रही थी तब कई वर्षों के पश्चात एक कायस्थ परिवार में एक कन्या का जन्म 26 मार्च 1907 में हुआ, जिनका नाम महादेवी (वर्मा) पड़ा। महादेवी जी का जन्म होलिका दहन के पूर्व हुआ। ऐसा लगता है कि देवी के व्यक्तित्व पर अग्नि का जो तेज निकलता है उसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ा। उनके पिता श्री बाबू गोविंद प्रसाद वर्मा अंग्रेजी के अध्यापक थे। माताजी भी ब्रज भाषा में कविताएं रचती थीं, वैष्णव धर्म में उनकी आस्था थी सो इसका प्रभाव महादेवी जी पर भी पड़ा। महादेवी जी का परिवार कन्या पाने को लालायित था। हज़ार दुआओं के बाद दो सौ साल के पश्चात एक बेटी का जन्म हुआ इसलिए परिवार हर्षित था, देवी जी का लालन -पालन पुत्रों के समान हुआ।


कायस्थों में यह धारणा है कि उनके दो वर्ग होते हैं, पहला खरा वर्ग जो हिन्दू रीति-रिवाज,परम्परा को मानते हैं, दूसरा वर्ग मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित होता है। डॉ० प्रीति अदावल (देवी जी की भांजी) ने मुझे बताया था -"यास्मीन हमारे ननिहाल में दस्तरख़्वान का प्रयोग होता था। दस्तरख़्वान वह चौकोर बड़ा कपड़ा जिसके चारों तरफ फूल या बेल बने होते हैं। फिर चारों ओर ख़ुदा की नेमत (खाना) का शुकराना अदा करने के लिए शेर-वो-शायरी लिखी होती है। यह प्रायः पीले या नारंगी रंग के होते हैं। घर के सारे मर्द उसी पर रखकर खाना खाते थे। हमारे घर की महिलाएँ दस्तरख़्वान का बचा खाना नहीं खाती थीं क्योंकि उसमें माँस, मछली, अंडा रहता था। ये आजकल प्लास्टिक के आते हैं लेकिन यह दस्तरख़्वान नहीं है।" गुरूजी (महादेवी वर्मा जी) ने मुझे बताया था कि मेरे हाथ की चपाती घरवालों को बहुत पसंद थी। यह भी बताती थीं कि नानी का कहना था कि लड़कियों को घरेलू कार्यो में दक्ष होना चाहिए। महादेवी जी बड़ी खूबसूरती से अपना घर चलाती थीं। गले में काले धागे में कुंजी (चाबी) पहने रहती थीं। गुरूजी की शिक्षण शैली भी बहुत आनंद देने वाली थी लेकिन शिक्षण से कहीं अधिक उनकी बातें सुनना वातावरण को बहुत अधिक सुंदर बना देता था। तब ज़्यादा समझ नहीं आती थी, अगर वह आज होतीं तो फिर कुछ समझ पाती मैं। 11 सितम्बर 2018 को हमने महादेवी जी की तीसवीं पुण्य तिथि को मनाया। महादेवी वर्मा जी सदैव श्रद्धेय गुरूजी के रूप में मेरे हृदय में विराजती रहेंगी और मेरी आती - जाती सांसें उन्हें नमन करती रहेंगी और गुरूजी सदैव मेरे कर्मक्षेत्र के मार्ग को प्रशस्त करती रहेगी, इसी अटूट विश्वास के साथ मैं..... 



यास्मीन सुल्ताना नक़वी


प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) 


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