देखता हूँ मैं......


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देखता हूँ मैं हवाओं का जो आँधी होना
याद आता है सिकंदर का भी मिट्टी होना


काश! महसूस कभी आप भी करते साहिब
दर्द देता है बहुत ग़ैरज़रूरी  होना


आरज़ू चाँद को छूने की ज़मीं से मत कर
अपनी बस्ती को मयस्सर नहीं दिल्ली होना


ग़म सुलगते हैं तो दरिया में बदल जाते हैं
तुमने देखा ही कहाँ आग का पानी होना


बदग़ुमानी है तेरी, ख़ुद ही ख़ुदा बन बैठा
तेरी तक़दीर में है ज़ख़्म की मक्खी होना


दर्द समझेंगे क्या बेदर्द ज़माने वाले
कितना मुश्किल है क़लमकार की बीवी होना


कौन करता है यकीं तेरी ज़ुबाँ पर 'परिमल'
ग़ैरमुमकिन है तेरे इश्क़ में राज़ी होना
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समीर परिमल
पटना (बिहार)
मोबाइल - 9934796866
ईमेल samir.parimal@gmail.com


 


डाटला एक्सप्रेस
संपादक:राजेश्वर राय "दयानिधि"
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