(साहित्य)
मैं भोली भाली जनता हूँ
युग-युग से छली ही जाती हूँ
ख़ुद अपने बन्धन में जकड़ी
किस आस में जीती जाती हूँ ?
मुझे हर प्रचार भरमाता है
हर नेता मुझे लुभाता है
हर बहकावे में फँस फँस कर
क्या सच है जान न पाती हूँ !
इस कोने से उस कोने तक
जीवन की इति श्री होने तक
है कौन सही और कौन ग़लत
यह भेद समझ न पाती हूँ !
न भूत में थी सन्तुष्ट कभी
न वर्तमान में तृप्त हुयी
होगा भविष्य सुखमय शायद
इस भ्रम में जीती जाती हूँ !
इक अंश हमारा हिन्दू है
दूजा मुस्लिम कहलाता है
कुछ सिख- इसाई हैं मुझमें
यह कह कर बाँटा जाता है !
वे हमें लड़ाकर धर्म भेद पर
अपने जाल बिछाते हैं
हम आ उनके बहकावे में
मानवता भूले जाते हैं !
मुझको इस छल प्रपंच पर
अब थोड़ा रोष भी आता है
यूँ सह कर सारे अतिक्रमण
कैसे चुप बैठा जाता है ?
संभवत: वह दिन दूर नहीं
जब बाँध सब्र का टूटेगा
अपने अधिकारों की ख़ातिर
हमको लड़ना आ जायेगा !
तुम तब तक मनमानी कर लो
हम जब तक निष्क्रिय बैठे हैं
लेकिन कब तक ? आख़िर तेरा
यह पाप कुंभ भर जायेगा !
फिर छीन सभी लोभी भ्रष्टों से
हम अपना हक़ ले लेंगे
जब लोकतंत्र की परिभाषा
हम सही रूप में समझेंगे !
उषा लाल/प्रयाग
प्रस्तुति
डाटला एक्सप्रेस
संपादक:राजेश्वर राय "दयानिधि"
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