कुमारी अर्चना 'बिट्टू' पूर्णियाँ,बिहार की एक कविता "हाथों की बनी निशानी"

"हाथों की बनी निशानी"
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एक ही निशानी तो बची है
आलमारी जब भी खोलती हूँ
उसी पर नज़र अटक जाती है
देख फिर सहेज कर रख देती
फिनाइल की गोलियाँ भी डालती
ताकि स्वेटर सुरक्षित बनी रहे
यही तो माँ के हाथों की बनी
मेरे पास बची निशानी है!


जो पापा के बनाए बहुत सारी
गहनों से भी बेशकीमती है
गहने तो कभी-कभी पहनती हूँ
जब पार्टी में जाने के लिए सजती हूँ
पर माँ के हाथों की बनी स्वेटर तो
हर साल के ठंड मौसम में पहनती हूँ!


माँ बूढ़ी हो चुकी है
दूसरा स्वेटर नहीं बुन सकती है
दोनों आँखों में मोतियाबंद से
धुँधला सा दिखाई देता है
शाम को बाहर जा नहीं पाती
मैं जब भी साथ जाती तो
तेज बहुत आगे निकल जाती
पीछे से वो आवाज़ देती है
या मैं खुद भी रूक जाती हूँ
जब वो पास आ हुई दिखती है
मैं फिर तेज चलने लगती हूँ
माँ कहती है कि तुम
पापा की तरह चलती हो बहुत तेज
मैं कहती हूँ तुम क्यों नहीं चलती
माँ कहती है मेरी उम्र की होगी
तो तुमको पता चलेगा!


जब भी मैं बाजार में
पैसे खूब बर्बाद करती तो
माँ पुरानी कहावती कहती
वक्त आने पर ही तुमको
आटा-दाल का भाव पता चलेगा
रूपैया कमाओगी तब उड़ाना
मैं पलट कर जबाब देती
फिर देखना मैं क्या क्या करूँगी!


माँ बुरे वक्त के लिए भी
कुछ न कुछ बचत कर रखना चाहती
और मैं पसंद की हर चीज पाने
खाने और पहनने की शौकीन हूँ
हम दोनों बहुत भिन्न है
मैं आधुनिकता की प्रतीक
और माँ परम्पराओं की!
कुछ समानता है तो वो
चारित्रिक और सेवाभाव की!


माँ की आँखों का ऑपरेशन
मैं जल्दी करवाना चाहता हूँ
खूब रूपैये कमाऊँ फिर
माँ को नयी आँखे दिलवाऊँ
ताकि मेरे नन्हें मुन्नों के लिए
माँ स्वेटर बुन सके!
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(प्रस्तुति: डाटला एक्सप्रेस (साप्ताहिक)/गाज़ियाबाद, उ०प्र०/30 जनवरी से 05 फरवरी 2019/बुधवार/संपादक: राजेश्वर राय 'दयानिधि'/email: rajeshwar.azm@gmail.com/datlaexpress@gmail.com/दूरभाष: 8800201131/व्हाट्सप: 9540276160



कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार


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