डगर में मेरे
--------------
दोस्त की शक्ल में, दुश्मन भी छुपे घर में मेरे ,
आदमी फिर भी कई नेकदिल , शहर में मेरे ।
रात भर पलकें किसी ख्वाब में बोझिल सी रहीं,
और कुछ दर्द भी चुभते रहे जिगर में मेरे ।
जुबां जो आपने खोली कि गिरी बिजली सी ,
इतनी तेजी तो न आई कभी नश्तर में मेरे ।
ठोकरें खा के, सुना; इंसा बदल जाते हैं,
या कि हम बदले न, या दम न था ठोकर में मेरे ।
किस तरह खुद से छुपाऊँ मैं दास्तां अपनी ?
वक्त सब चुपके से कह जाता है बिस्तर में मेरे ।
हम-नफ़स, हम-कदम, हम-राज़ बहुत हैं लेकिन –
साथ साया भी न चलता मेरा, सफ़र में मेरे ।
तुझसे कुछ आसनाई है कि मरासिम कोई !
अजनबी कौन समाया है तूं , नज़र में मेरे ?
उम्र भर की बड़ी कोशिश , न मगर भूला तुझे ,
नाम खुद सा गया तेरा, दिले-पत्थर में मेरे ।
आपकी मर्ज़ी, जिसका चाहो एहतराम करो ,
दर-ए-ख़ुदा भी, मयकदा भी है डगर में मेरे ।।
__________________________
(प्रस्तुति: डाटला एक्सप्रेस (साप्ताहिक)/गाज़ियाबाद, उ०प्र०/30 जनवरी से 05 फरवरी 2019/बुधवार/संपादक: राजेश्वर राय 'दयानिधि'/email: rajeshwar.azm@gmail.com/datlaexpress@gmail.com/दूरभाष: 8800201131/व्हाट्सप: 9540276160
सुनील पांडेय
जौनपुर/उत्तर प्रदेश