लघुकथा: सुगन्ध

प्रस्तुति "डाटला एक्सप्रेस" 


जब कहीं उबर पाई दद्दू की उस नेह गंध से, मां माटी की सुगंध से, तो मुझे स्वयं ही लगा कि- अरे मैं कितनी डूबी रही उस मधुर स्मृति सरोवर में गोते लगाती हुई।

    कुछ नहीं.....! हुआ यह कि घर की छत पर 35 - 40 गमले लगा रखे हैं, ताकि मन को सुकून मिलता रहे कि प्रकृति और मां माटी के करीब हैं।उस दिन स्कूल से आते ही पौधों की देखभाल में जुट गई। कुछ जो बेचारे पौधे मेरे नेह से पालित होते हुए भी असमय मृत्यु को प्राप्त हो गए थे, उनकी अंतिम क्रिया करके और नई माटी डालकर बाकी की निराई गुड़ाई से पोषण करने लग गई। उस वक्त माटी में मेरा मन इतना रमा हुआ था कि धूप- गर्मी का तनिक भी एहसास ना हुआ।

     सब कुछ ठीक-ठाक करके घर के भीतर आकर बैठ गई। पास में बैठा भांजा बोल उठा "कितनी बदबू आ रही है आपके कपड़ों में पसीने की"। यह सुनते ही मैं खो गई अपने बाल्यकाल की उन पुरानी यादों में ।जब भी दद्दू खेत से आकर अपना कुर्ता खोलकर खूंटी पर टांग कर खाट पर बैठकर के सुस्ताते थे, उस वक्त मैं तुरंत उनके कुर्ते की पसीने से भीगी बाहें सूंघ लेती थी बड़े प्यार से। कारण कि उस गंध में मुझे माटी और मेहनत की, दद्दू के घोर परिश्रम की सुगंध महसूस हुआ करती थी।

     आज अचानक भांजे की आवाज मुझे इस क्रूर कराल वर्तमान में ले आई । सोच रही हूं कि यह पीढ़ी कब जुड़ पाएगी अपनी मां माटी की सुगंध से.........। 



  ममता शर्मा 'अंचल'" 

   अलवर (राजस्थान)

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