डॉक्टर यास्मीन सुल्ताना नक़वी (प्रयागराज/उत्तर प्रदेश)
आज नयन क्यूँ भर-भर आते
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प्रयाग में पैर रखने पर साहित्यकार पहले महादेवी जी के दर्शन करता था और उसके बाद संगम स्नान करता था। आज इतने बरस हो गए महादेवी जी को संसार छोड़े हुए, उनके नाम पर किसने क्या किया,,,,,? ऐसा लगता है कि लोग उन्हें भूलते जा रहे हैं। नई पीढ़ी उस पटरी पर चलना चाहती है जिस पर चलने से उसे लाभ प्राप्त हो। लाभ-हानि का जोड़ घटाना होकर रह गयी है ज़िन्दगी। सबके सोचने का दृष्टिकोण भिन्न है, कौन किसको समझाए, कौन किसकी सुनेगा।एक बार बातों- बातों में महादेवी जी ने एक बात कही थी.......
"कौन किसको, कब तक स्मृतियों में रख सका है? समय के साथ माँ अपनी संतान को भी स्मृति छाया तले सुला देती है। सुमित्रा नंदन पन्त जी जनता के कवि थे। नवयुवकों के स्पंदन समझ जाते थे, कितने युवक हैं जो पंत के पथ को आलोकित और पुष्पित कर रहे हैं। यह संसार है। यहाँ क्लेश भरा पड़ा है। दुखों का अंबार है। कौन किसके लिए रुकेगा और रोयेगा।"
उस दिन की गुरूजी की कही ये बात आज भी मुझे याद है। आज मुझे लगता है कि उन्होंने भविष्य की नाड़ी पर हाथ रखते हुए पंत जी के माध्यम से ये बातें कही थीं। महादेवी जी ने अपने साहित्य के माध्यम से नारी जागरण की मशाल जलाई थी,नारी अधिकार का पाठ पढ़ाया था। उनके रोम- रोम में भारतीय संस्कार और आदर्श का आवरण सदैव पड़ा रहा।
महादेवी जी की एक और विशेषता थी कि जब तक ड्राईंगरूम से सारे लोग चले नहीं जाते थे वो बैठी ही रहती थीं, कितनी भी क्यों न थकी हों। उनका आतिथ्य भाव भी बहुत बड़ा था।
स्मृतियों का कोई अंत नहीं है। एक के बाद दूसरी फिर तीसरी और न जाने कितनी परत-दर-परत निकलती चली आती हैं। बात जितनी दूर तक जाती है उतना ही मैं यादों के तूफान में घिर जाती हूँ। हँसती भी हूँ और रोती भी। यह यादें मन के कोने में सोई पड़ी थीं। इस मुल्क का यही स्वभाव है कि मसरूफ़ियत के परचम तले सब को खड़ा रखता है।
"हिंदी जगत" के लिए संस्मरण लिखते हुए वह सारी बातें मन-मानस में उल्लास तरंगे भरने लगीं जो कई वर्षों से अन्तस् में दबी पड़ी थीं।
गुरूजी के स्नेह और विछोह का दर्द तो परिचित है इसलिए यादों के बवंडर में हृदय दिग्भ्रमित हो जाता है। स्मृतियों के कण आंखों में ऐसे गड़ने लगते हैं कि उस पीड़ा को चुपचाप आंखों की नमी के साथ सहन करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रहता। आदरणीय रघुवंश जी कहते थे -
"यास्मीन! दीदी की (महादेवी जी की) कृपा मुझ पर कुछ अधिक ही थी क्योंकि मैं शरीर से कमजोर था और भी मजबूरियाँ थीं (उनका आशय अपने हाथ की तरफ जाता है) जिससे उनका स्नेह मुझ पर ज्यादा रहा जैसे माँ का अपने कमजोर बच्चे पर। किन्तु सच्चाई यह भी है कि तुम भी पेट पोछनी सन्तान की तरह महादेवी की दत्तक पुत्री हो।"
दत्तक पुत्री शब्द का प्रयोग डॉ. रघुवंश ने तब किया था जब मेरी पुस्तक "साक्षात्कार के आईने में महादेवी वर्मा" की भूमिका लिख रहे थे तब उन्होंने यह बात कही थी। और भी निकलेंगी बातें यादों के झरोखे से तब तलक आओ दुआ करें कि चहुंओर खुशियां सावन की हरियाली सी महके।
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[महादेवी वर्मा जी के जीवन के अन्तिम सत्तरह वर्षों में उनकी ख़िदमत में रहीं उनकी शिष्या डॉक्टर यास्मीन सुल्ताना नक़वी (प्रयागराज/उत्तर प्रदेश) से कवयित्री ममता शर्मा 'अंचल'(अलवर/राजस्थान) की लम्बी बातचीत में उनके द्वारा सुनाये गये संस्मरणों के आधार पर। प्रस्तुति: डाटला एक्सप्रेस]
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